Monday 10 October 2016

प्रिय यामिनी जागी / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

कवि  का लक्ष्य होता है एक वैयक्तिक अनुभव को उद्दात्त रुप देना, जिससे कविता सर्वजनीन हो सके. पाठक उसमें अपने आग्रह का आरोपण कर उसे पुनः विषिष्ठ बनाता है. यही दोनों का काव्य-धर्म है.

                           प्रथम सहचर्य के इस क्षण के ज्ञान मेँ रात भी सजग है, मानों  साक्षी हो. अभिसार के नवीन अनुभव से क्लांत, अलसायी नायिका की कमल सदृश आँखें अत्यंत समीप, उसके ही वक्ष पर विश्राम करते प्रियतम के दमकते मुख के प्रथम प्रेम मेँ अनुरक्त हो रही हैं.
खुले केश पीठ, गर्दन, बांहों और वक्ष पर बिखरे हैं और उनके मध्य प्रियतम का मुख बादलों के बीच एक अन्य सूर्य प्रतीत होता है. इस शोभा-श्री से होड़ लेती सी दामिनी एक क्षण चमक कर बुझ जाती है मानो इस ज्योतिरूप कोमलांगी के रूप की समता न होने के कारण क्षमा मांग त्वरित विदा ले ली हो.
अपना सर्वस्व प्रिय को न्योछावर कर,  त्याग के धागे में पिरोई मोती सी हमारी नायिका, जिसने अपने इस त्याग के पुण्य से अपने प्रिय को समस्त वासनाओं से मुक्त कर दिया है, उसके प्रेम को जय कर, गर्वान्वित, वक्ष के वसन को देखती-ठीक करती, मुख से बालों को हटाती, चारोँ ओर  देखती, धीमे-धीमे शयनकक्ष से जा रही है.

गीतिका / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"


(प्रिय) यामिनी जागी।
अलस पंकज-दृग अरुण-मुख
तरुण-अनुरागी।
खुले केश अशेष शोभा भर रहे,
पृष्ठ-ग्रीवा-बाहु-उर पर तर रहे,
बादलों में घिर अपर दिनकर रहे,
ज्योति की तन्वी, तड़ित-
द्युति ने क्षमा माँगी।
हेर उर-पट फेर मुख के बाल,
लख चतुर्दिक चली मन्द मराल,
गेह में प्रिय-नेह की जय-माल,
वासना की मुक्ति, मुक्ता
त्याग में तागी।

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