Sunday 6 June 2010

भय-३

अक्सर महसूसता हूँ मैं
एक शून्य, सर से उतर
सीने और रीढ़ की हड्डियों से हो
फैल जाता है नीचे तक

जानता हूँ
यह ख़ालीपन
जो छा जाता है मेरे दिमाग़ में
सूचक है
मेरे बढ़ते दिमागी असंतुलन का

लगता है
उड़ जाएगा एक दिन यह दिमाग
एक विस्फोट ले साथ !
मौत का एहसास है फकत
मेरे लिए मेरी जिंदगी

ऐसे में
मायने खो देते हैं सब हक़ीकत
पाप-पुण्य, आस्था-अनास्था, सच-झूठ...
मैं उस मुकाम पर खड़ा हूँ
जहाँ है एक विराट, मौन भय
लील चुका मेरा संपूर्ण अस्तित्व !

(१९ अक्टूबर, १९९१)