Sunday 13 September 2015

" बादल में आए जीवन-धन", सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

पावस ऋतु है और प्रियतम घर आए हैं.  नायिका के लिए बाहर और अंदर प्रकृति की एक सी असंयम आतुरता,एक सी चंचल और अधीर व्याकुलता है.  जैसे एक विकल आत्मघाती और अनैसर्गिक बंधन जिससे मुक्त होने की सहज तत्परता हो.

अपने कक्ष के निर्जन अप्नत्व मे निर्वसन कोमल-तन तरुणी प्रियतम का स्वागत करती है, कटाक्ष से, मौन उलाहने से, अर्थपूर्ण चितवन से और प्रकँपित तन से. ईच्छापूर्ण मन और आग्रहपूर्ण देह प्रियतम को सर्वस्व अर्पण करने को तत्पर है जैसे यही एकमात्र लक्ष्य है इस क्षण का. जैसे बादल अपना सर्वस्व उंड़ेल कर या नदी समुद्र को अपना सब सौंप कर मुक्त हो जाना ही धर्म जानती हो वैसे ही स्वत्व का यह संपूर्ण समर्पण ही इस क्षण मे संबंध का धर्म है.


 बादल में आए जीवन-धन
अपल-नयन सुवास-यौवन नव
देख रही तरुणी कोमल-तन

मरुत-पुलक भर अंग प्रकँपित
बार-बार देखती चपल-चित
स्पर्श-चकित कर्षित हो हर्षित
लक्ष्य पार करती चल-चितवन

 नव-अपांग-शर-हत व्याकुल-उर
आतुर वारिद वारि-धार स्फुर
उगा रहा उर में प्रेमांकुर
मधुर-मधुर कर-कर प्रशमित मन

बरस गयी जल-धार विश्व-सृज
शैवलनी पा गयी उदधि निज
मुक्त हुए आ स्नेह के क्षितिज
रूप-स्पर्श-रस-गंध-शब्द धन



" बादल में आए जीवन-धन",  सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
गीतिका, राजकमल प्रकाशन