Monday 17 November 2008

सब ठाट पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा

सर्ग'ई एसनिन की आत्महत्या पर मरीना स्वेत्स्कया ने लिखा था, '"मरना कठिन नहीं इस जिंदगी में, ज़्यादा कठिन है सृजन जिंदगी का". यकीन करना मुश्किल है की यह लिखने के एक साल के अंदर उन्होने खुद आत्महत्या कर ली! गोरख पांडे लिखते हैं, "तेरी आँखें हैं की तकलीफ़ का उमड़ता समंदर, इस दुनिया को जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिए". मुझे पता नहीं उन्होने खुद को मारने से कितने पहले ये पंक्तियाँ लिखी थी. और कौन भूल सकता है इन ओजस्वी पंक्तियों को, "सुनूँ क्या ए सिंधु मैं ग़रज़न तुम्हारा, स्वयं युगधर्म की हुंकार हूँ मैं"! दिनकर!! किसने उमीद की थी उनसे सुनने की, "हारे को हरी नाम'"!
हेमिंगवे ने कहीं लिखा है की जिस दिन मुझे लगेगा की किसी को मेरी ज़रूरत नहीं है, वो मेरी जिंदगी का आख़िरी दिन होगा (कुछ इसी तरह के भाव). क्या सोच रहा था वो जब उसने खुद को गोली मार ली?
मुझे याद आती है मायकोवस्की की पंक्ति, "मुझे मालूम है मेरे जूते की कील ज़्यादा विस्मयकारी है गेटे की तमाम कल्पनाओं से". ताज़ूब है लोग खुद से और जीवन से क्या-क्या अपेक्षाएं लगा रखते हैं. ऐसी की जीना भूल जाते हैं.

जब चलते चलते रस्ते में यह गौण तेरी रह जाएगी
एक बधिया तेरी मिट्टी पर फिर घास न चरने पाएगी
यह खेप जो तूने लादी है सब हिस्सों में बँट जाएगी
धी, पूत, जमाई, बेटा क्या, बंजारन पास न आएगी
सब ठाट पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा

कज्जाक अजल का रस्ते में जब भाला मार गिराएगा
कोई ताज़ समेटेगा तेरा कोई गौण सिये और टाँकेगा
हो ढेर अकेला जॅंगल में तू खाक लहद की फाँकेगा
उस जॅंगल में फिर आह नज़ीर, एक तिनका आन न झाँकेगा
सब ठाट पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा

(नज़ीर अकबराबादी)