Wednesday 4 November 2020

दर्द का महासंगीत और फ़ैज़

 रग-रग में जिसके नश्तरे-ग़म के शिगाफ हों

वो क्या बताए, दर्द कहाँ है, कहाँ नहीं


दर्द व्याधि का होता है और व्यथा का। जब दोनों मिल दर्द सिरजते हैं, वह अद्भुत सम ताल में संगीत सा झंकृत कर देता है; शरीर को निश्चय, पर उतना ही आत्मा को भी। इस वेदना में कोई विराम, कोई व्यतिक्रम नहीं

यह वेदना की टीस, यह तने वीणा का झंकृत तार, यह स्वयं में खोया मद्धम सम ताल, यह मीरा को कृष्ण- विरह का भुजंगम-दंश! इसका क्या निदान

यह शरीर की विवशता पर आत्मा का समर्पण-गान है। यह सूर का अभिमानहीन प्रार्थना है, “हे गोविन्द राखो शरण, अब तो जीवन हारे

एक अनाहूत ज्ञान, उसकी पुकार, जो आत्महन्ता भय जनता है वह जब शरीर के दुख पर चढ़ उन्माद रचता है, यह वही दर्द है। इसका क्या इलाज? कबीर कहते हैं,


 “विरह भुवंगम तन डँसा, मंत्र लागे कोय

राम स्नेही ना जिये, जिये तो बौरा होय।



सौवों बार पढ़ा होगा, फ़ैज़ की यह नज़्म, हर बार तनिक ज़्यादा ही विस्मय से, किन्तु पढ़ने का और समझने का भेद भी तो जानता हूँ। अबकी बार तो पढ़ना पड़ा ही नहीं, सप्ताह भर तो वह हाल हुआ, जिसे कबीर बताते हैं, “ पीछे-पीछे हरि चले, कहत कबीर, कबीर”!


दर्द इतना था कि उस रात दिल--वहशी ने 

हर रग--जाँ से उलझना चाहा

हर बुने-मुँ से टपकना चाहा

और कहीं दूर तेरे सहन में गोया

पत्ता-पत्ता मेरे अफ़सुरदा लहू में धुलकर 

हुस्न--महताब से आजुर्दा नज़र आने लगा

मेरे वीराने-तन में गोया

सारे दुखते हुए रेशों की तनाबें खुलकर

सिलसिलावार पता देने लगीं

रूखसत--क़ाफ़िला--शौक़ की तैयारी का


पिछले ग्यारह दिन, अस्पताल के निर्जन कक्ष की रही यह उपलब्धि! जब एक थकान शरीर का अतिक्रमण कर आत्मा पर मानो पसर गया था! ऑंख भी खोलने देने को तैयार नहीं होता और दो शब्द बोलना जैसे आत्मा को टीसता! कैसी यंत्रणा! इसी के मध्य, फ़ैज़ साहब की इस नज़्म के मायने मिले


और जब याद की बुझती हुई शम्माओं में नज़र आया कहीं

एक पल आख़िरी लम्हा तेरी दिलदारी का

दर्द इतना था कि उस से भी गुज़रना चाहा

हमने चाहा भी मगर दिल ना ठहरना चाहा


(हॉर्ट अटैक: फ़ैज़ अहमद फ़ैज़)


Sunday 24 May 2020

छायावाद में भाषा के आतँक के विरोध में



शिल्प और तकनीक के स्तर पर छायावाद का जो भी योगदान हो हिंदी साहित्य में, वह सारा बहुत क़ीमत देकर ही प्राप्त हुआ। और कुछ सामान्य मूल्य भी नहीं। आम पाठक को सायास और आग्रह के साथ दूर भगा कर जो उपलब्धि हुई उसका प्रतिदान मिला जब कालांतर में सामान्यतः सहिष्णु पाठकों ने हिंदी काव्य का परित्याग ही कर दिया!

कैसे घटी यह दुर्घटना?

जब खड़ी हिंदी, काव्य में अपनी दिशा ढूँढ रही थी तो सबसे बड़ी कठिनाई आयी कथ्य-सम्बन्धी। चिरकाल से ही प्रेम अपने भिन्न रूपों में काव्य का मुख्य संबल रहा है। कविता के योग-मार्ग पर कवि का पाथेय! किंतु प्रेम के सूक्ष्म रहस्यों की जो गवेषणा भक्त-कवि, सूफ़ी संत कर गए थे और इसके स्थूल रूप का जो श्रृंगार विद्यापति और बंगला काव्य में हो रहा था, उसके परे कुछ शेष नहीं दिखता था। 

इसे क्या हिंदी का ही दुर्भाग्य कहें की उस समय हिंदी में अत्यंत सक्षम, दुराक्रान्त मनीषियों का जो दल था, उसने इन दोनों ही बहुचलित राहों का परित्याग कर अपनी ख़ुद की राह बनाने का निश्चय किया। यहीं घटी यह अनिर्वचनीय, किन्तु यदि विचारें तो अवश्यम्भावी, दुर्घटना।

थोड़ा ही ध्यान देने से दिखता है की प्रचलित राह तो सूफ़ी हों या भक्त-कविगण या विद्यापति आदि, सभी ने लिया सहज ही उपलब्ध गाँव-क़स्बे के मध्य। यह तो सबके जीवन के बीच का ग्रामीण पथ रहा हमेशा से जिसने सदा कविता में सम्मान पाया।

बस सूझ गया उपाय। निश्चय हुआ कि एक राज-पथ भी तो नितांत अनिवार्य है। ख़ूब उन्नत, प्रशस्त और दीप-आलोकित राज-पथ के निर्माण का संकल्प हुआ। किन्तु, ग्राम्य-पथ-चारी बैलगाडी भी तो इस पथ के योग्य नहीं। इस पथ पर तो एक रथ ही शोभा देगी। सो वही तय हुआ। एक विकासमान भाषा जिसका संस्कृत सा उच्चवर्गीय कुल-गोत्र हो, वही इस नवीन पथ की नींव-शिला होगी, वाहन भी और आभूषण भी क्या ही सज्जा के साथ जब श्वेतांबर परिधान और आपादमस्तक स्वर्ण-जडित आभरण पहने सात अश्व-साधित छायावाद-रथ उस राजपथ पर निकला तो सारा विश्व सहसा अवाक रह गया!

किन्तु, इस पथ पर तो गँवई जीवन का चक्र नहीं घूम सकता, उनकी बैलगाड़ी तो कदाचित यहाँ वर्जित ही हो, इस विचार का तो उपयुक्त समय था, शायद इच्छा भी हो। 

आज कितने आश्चर्यमय वेदना से हम कहते हैं, क्या किया प्रभु। कैसा सत्यानाश किया। इतने वर्षों बाद भी वह जन-समूह गाहे-बगाहे, कौतुहल-वश ही कभी इस राज-पथ को झाँकने आता हो तो हो। और, सारा राज-कोष यहाँ उँडेल देकर, कुछ शेष भी तो नहीं रहा, उन ग्राम्य पथों के लिये। शायद, इतने अविवेकी सामर्थ्य की विवेचना करते वे भी लुप्त होते गये। यही हिन्दी की एक समय की जन-साध्य, लोकप्रिय काव्य के अंततोगत्वा पतन का संक्षिप्त इतिहास है।

छायावाद में भाषा का दुरुपयोग इस अर्थ में है कि भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम रहके आभरण बन गयी। आवरण, पर्दा। भाषा यदि व्यक्त करने के बदले श्लेष करे, छिपाये, इसी को तो विडम्बना कहेंगे।

जो साहित्य-रसिक बन्धु विद्यापति की श्रृंगार-रचना देख मुग्ध हो कहते हैं, ऐसा कुछ क्या हिन्दी में है, या लिखा भी जा सकता है,   उनके आक्षेप का तो कोई प्रतिवाद भी नहीं। किस मुँह से कहूँ भइया, हमारे निराला को निराभृत कर पढ़ो। उन्हें क्या गरज पड़ी है, जब हमनें स्वयँ सायास बलपूर्वक धकेल कर कहा, दूर जाओ।


नयनों के डोरे लाल गुलाल-भरी खेली होली !
प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली,
एक वसन रह गई मंद हँस अधर-दशन अनबोली
कली-सी काँटे की तोली !
मधु-ऋतु-रात मधुर अधरों की पी मधु सुधबुध खो ली,
खुले अलक मुंद गए पलक-दल श्रम-सुख की हद हो ली--
बनी रति की छवि भोली!

                                                (राग-विराग/ निराला)