Saturday 6 September 2008

सखि, वे मुझसे कहकर जाते

(पिछली प्रविष्टि के सन्दर्भ में यह स्पष्ट करना उचित होगा की रहस्यवाद (जो की छायावाद के नाम से जाना गया) के संग काव्य में, उससे तनिक पूर्व ही, एक अन्य धारा पल्लवित हुई जिसका श्रेय भारतेंदु किंतु मुख्यतः गुप्त को जाता है. भाषा के प्रति सतर्कता का जो ज़िक्र आया था उसमें कदाचित् गुप्तजी का उल्लेख छूट गया था किंतु उनका योगदान कवित्रयि से शायद ज़्यादा ही हो. )

राष्ट्रीय सम्मान और गरिमा का भाव और स्पष्ट कल्पना उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध की दे'न है जो संभवतः १८५७ के असफल संग्राम के उपरांत के पाश्चात्य-शिक्षित राष्ट्रप्रेमी बुद्धिजीवियों के चिंतन का परिणाम है. एक संपूर्ण राष्ट्र अपनी शक्ति से अनभिज्ञ सुषुप्त या शायद किसी अनिश्चित भय से ग्रस्त श्रीहीन और चेतनहीण कैसे हुआ इस विषय में गंभीर मतभेद थे.
किंतु एक बार इस विषय में मतैक्य होने के उपरांत उन मनीषी जनों ने इस दिशा में अथक प्रयत्न किया. मालवियजी, सैयद अहमद ख़ान साहब ने शिक्षा के क्षेत्र में तो नौरौज़ी ने राजनैतिक अर्थशास्त्र में. राष्ट्रीय राजनीतिक मुख्यधारा में समर्पित हठी महापुरुषों का उल्लेख यहाँ संभव भी नहीं. हिन्दी साहित्य में भारतेंदु के अल्पायु में निधन के उपरांत गुप्त ने राष्ट्रीय चेतना को उद्बोधित करने का बीड़ा उठाया. एक तरह से देखें तो गुप्त का इस विषय में योगदान मजूमदार एवं उनके समकालीन इतिहासविज्ञ तुल्य है जिन्होनें प्राचीन भारतीय संस्कृति की सकारात्मक व्याख्या कर भारतीय मध्यम वर्ग को दीर्घ परतंत्रता एवं अँग्रेज़ों की सतत आलोचना से उपजित हीन भावना से मुक्ति दिलाने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

गुप्त की कविताएँ भारत की प्राचीन उत्कृष्ट सांस्कृतिक एवं दार्शनिक परंपरा को रेखांकित ही नही करती अपितु आधुनिक परिपेक्षय में नयी व्याख्या भी प्रस्तुत करती है. नारी की उनकी नवीन मूर्ति उसकी शक्ति एवं आत्मबल के परिदर्शन में अत्यंत मुखर है. उन्होनें हिन्दी कविता को न केवल एक पहचान देने में मदद की बल्कि उस संक्रांति काल में राष्ट्रीय चेतना का स्वर बन हमेशा के लिए भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दी कविता की भूमिका स्थापित भी की.
सुर में तनिक अल्ग किंतु आत्मा में एक से उनके अनुयायियों ने उस महाभारत में संपूर्ण हिन्दी समाज की भावना को स्वर दिया. दिनकर, माखनलाल से सुभद्राजी एवं अन्यन्य जिनका उल्लेख भी प्रातः की प्रार्थना तुल्य है.

यहाँ गुप्तजी की एक जानी-पहचानी कविता प्रस्तुत करता हूँ जो मुझे स्कूल समय से ही अतिप्रिय है. जैसा उपर मैने लिखा है, नारी की शक्ति, आत्मबल, उसका रोष एवम् व्यथा सभी नए आलोक में.


सखि वे मुझसे कह कर जाते / मैथिलीशरण गुप्त

सखि, वे मुझसे कहकर जाते,
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?

मुझको बहुत उन्होंने माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना?
मैंने मुख्य उसी को जाना
जो वे मन में लाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,
प्रियतम को, प्राणों के पण में,
हमीं भेज देती हैं रण में -
क्षात्र-धर्म के नाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

हु‌आ न यह भी भाग्य अभागा,
किसपर विफल गर्व अब जागा?
जिसने अपनाया था, त्यागा;
रहे स्मरण ही आते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,
पर इनसे जो आँसू बहते,
सदय हृदय वे कैसे सहते?
गये तरस ही खाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

जायें, सिद्धि पावें वे सुख से,
दुखी न हों इस जन के दुख से,
उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से?
आज अधिक वे भाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

गये, लौट भी वे आवेंगे,
कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,
रोते प्राण उन्हें पावेंगे,
पर क्या गाते-गाते?

सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

(the poem is taken from http://hi.literature.wikia.com/wiki)