Sunday 24 March 2019

निराला की कविताओं में शृंगार और मेरी दुविधा

कविश्रेष्ठ की कवितायें अलौकिक और अद्भुत हैं। भाव के स्तर पर भक्त कवियों से होड़ लेती ये रचनाएं भाषा-जन्य काठिन्यवश हम सबसे कितनी दूर हो गयी हैं। 'गीतिका' में संकलित एक ऐसी ही कविता प्रस्तुत है, जहाँ निराला निराकार ब्रह्म का चिन्तन कर रहे है।

कौन तम के पार ?-- (रे, कह)
अखिल पल के स्रोत, जल-जग,
          गगन घन-घन-धार--(रे, कह)

गंध-व्याकुल-कूल- उर-सर,
लहर-कच कर कमल-मुख-पर,
हर्ष-अलि हर स्पर्श-शर, सर,\
          गूँज बारम्बार !-- (रे, कह)

उदय में तम-भेद सुनयन,
अस्त-दल ढक पलक-कल तन,
निशा-प्रिय-उर-शयन सुख -धान
           सार या कि असार ?-- (रे, कह)

बरसता आतप यथा जल
कलुष से कृत सुहृत कोमल,
अशिव उपलाकार मंगल,
          द्रवित जल निहार !-- (रे, कह)

किन्तु सिर्फ इतने के लिये मैं मित्रों का समय खोटा नही करता। कवि इस गहन और उद्दात्त चिंतनशील अवस्था में भी जो शृंगार रचता है, उसके क्या कहने। तीसरे अनुच्छेद पर ध्यान दें:
प्रातः मे अन्धेरे को भेदती वे सुन्दर आंखें; सन्ध्या मे पलकों के आवरण मे ढका वह तन और रात्रि मे प्रिया के वक्ष पर शयन का सुख: रे मन, कहो ये भी सार हैं या सब कुछ असार ही!

बस, इसी चित्र ने ऐसा मोह लिया कि साकार-निराकार का द्वंद्व ही ना रहा। जब रूप ऐसा तो क्या ब्रह्म, क्या माया!
ऐसे ही एक कठिन अवसर पर साम्यवादी ब्रह्म को क्या नहीं तजा था फ़ैज़ ने ?

ये भी हैं ऐसे कई और भी मज़मूँ होंगे
लेकिन उस शोख़ के आहिस्ता से खुलते हुए होंठ
हाय उस जिस्म के कमबख़्त दिलआवेज खतूत
आप ही कहिए कहीं ऐसे भी अफसूँ होंगे

अपना मौजूए-सुख़न इनके सिवा और नहीं
तबए-शायर का वतन इनके सिवा और नहीं

Saturday 23 March 2019

रविवार की ख़ाली दोपहरी

किसी युग में समाज का चरित्र निर्माण एक व्यक्ति की ही भाँति होता है। जिन परिस्थितियों में उसका प्रादुर्भाव होता है, वह उसके जन्म तुल्य है तो उन्ही परिस्थितियों से सतत संघर्ष में विकासमान उसका मूल्यबोध एक वैयक्तिक नैतिकता का विस्तार ही तो है। समाज के चरित्र की एक विशेषता उसका उदात्त होना है जो उसे एक समूह से अलग करता है। यह व्यक्तियों के समूह का निर्वयक्तिकरन है जो समाज को संप्रभु बनाता है।
क्या एक व्यक्ति तय करेगा कि उसका या किसी अन्य व्यक्ति का आचरण क्या होगा? या व्यक्तियों का एक समूह? इतिहास प्रमाण है की समाज, आवश्यक होने पर, नैतिकता, न्याय और कई बार धर्म के भी मान्य प्रतिमानों को अमान्य कर या बदल सकता है। 

हाल की ही बात लगती है। १९६६ में आयी थी फ़िल्म, ‘ममता’। देवयानी ने प्रेम निभाया, ममता निभायी और जो कुछ भी तत्कालीन समाज ने निषिद्ध किया, सबकी मर्यादा रखी। सबका स्नेह मिला, आदर मिला। कोई खोट नहीं, कोई दोष नहीं, न्याय ने सर झुका सत्कार किया। 
किंतु अंत में यही तय रहा की देवयानी का मरना श्रेयस्कर हो। कोई खोट, कोई दोष हो या ना हो, एक परित्यकता और गानेवाली के लिए समाज का न्याय कठोर है: काशी प्रवास या मृत्यु। शरत को नहीं पढ़ा आपने! अब, १९६६ के प्रगतिशील व्यक्ति समूहों के मध्य देवयानी को काशी भेजने में अड़चनें रही होंगी किंतु समाज का मूल्य बोध वैयक्तिक नैतिकता तो मानता नहीं! 
आश्चर्य इस फ़िल्म के अंत से नहीं, अपितु इस सत्य-बोध से है कि समाज के मूल्यों के प्रति कितनी सजगता हमारे फ़िल्मों ने दिखाए हैं और इसके रूढ़ रूप की निरंतरता के लिए कितने सचेस्ट व प्रयत्नशील रहें हैं हमारे फ़िल्म।