Saturday 3 March 2018

शरतचन्द्र का वेदनामय संसार

शरत ने जिन चरित्रों का सृजन किया उन्हें प्रेम का कोई अधिकार नहीं दिया और प्रेम कर पाने की अगाध क्षमता दी! अपात्र को दिया वैभव जो निश्चित नाश की ओर ले जाता है! यह सर्जक का शाप है जिससे परित्राण की कोई सूरत नहीं। इसे नासमझी कहें या हृदयहीनता, जो उन्होंने इन अभागों  को इस अपरिमित वेदना सह पाने की शक्ति भी दी। 

शरत के यहाँ प्रेम एक मर्मघाती, आत्महंता वेदना है। संज्ञा-शून्य करने वाली एक तीखी अनुभूति। एक टीस जो वीणा की तार सा शरीर को झंकृत कर दे। हृदय में एक घाव, जिससे मुक्ति स्वयं मृत्यु ही दे सकती हो। 

एक सर्वकालिक, उन्मुक्त प्रेम के आख्यान की क्षमता यदि किसी के पास मिलती है वह शरत हैं। किंतु उन्होंने कभी सामाजिक वर्जना की सीमा का अतिक्रमण नहीं होने दिया। उससे भी ज़्यादा चकित करता है नायक/नायिका के उस काल के नैतिक और मूल्य-बोध के तहत गढ़े उनके चरित्र के लिए शरत की प्रतिबद्धता! क्या आश्चर्य, शरत को पढ़ते समय सदा ऐसा प्रतीत होता है मानो वह स्वयं इससे असंतुष्ट हैं, निराश। किंतु, अपने काल का जो मूल्य-बोध और नैतिक बोध था, शरत ने उस बंधन को केवल माना, बल्कि उनकी मर्यादा रखी, और इसका जो परिणाम होना था, उसे साग्रह स्वीकारा भी। 

इतने निषेध-बंधनों में मर्यादित प्रेम का एक ही परिणाम शेष है। शरत के सुधी पाठक जैसे कथा के अंत के असहाय साक्षी हैं; प्रतीक्षा-रत कि कब नायक/नायिका का शेष-कार्य पूरा हो और उनकी तरह ही वे भी एक अबूझ शर्म की यातना से मुक्त होंउनकी कथा अकस्मात् भी समाप्त हो तो भी लगता है जैसे एक और पंक्ति और लेखक अपनी ख़ुद की निर्दिष्ट बंधनों से निकल जाएगा। उनकी हर कथा में हृदय यही असंभाव्य कामना करता है कि शायद इस बार लेखक तनिक लज्जाहीन हो हमें एक अनर्थक अंत देगा। किंतु शरत हर बार हम सबकी प्रतिष्ठा-रक्षा में सजग रहते हैं! यह शरत, उनके पात्रों और हम सबका साझा वेदनामय संसार है।
शरत को प्यार करना सहज है किंतु उन्हें क्षमा करना तो नितांत असम्भव है।


'साहित्य में आर्ट और दुर्नीति' प्रबंध में शरत् ने मानो मेरे ही सब अभियोगों का उत्तर देते हुए लिखा है –"पल्ली समाज' (हिंदी मेंदेहाती दुनियानाम से भी अनूदित हुई) नाम की मेरी छोटी-सी पुस्तक है। उसकी विधवा रमा ने अपने बाल्य बन्धु रमेश को प्यार किया था। इसके लिए मुझे बहुत झिड़कियां और तिरस्कार सहना पड़ा है।.......... दोनों के सम्मिलित पवित्र जीवन की कल्पना करना कठिन नही है। किन्तु हिन्दू समाज में इस समाधान के लिए जगह थी। इसका परिणाम यह हुआ कि इतने बड़े महाप्राण नरनारी इस जीवन में विफल, व्यर्थ और पंगु हो गए। मनुष्य के बन्द हृदय-द्वार तक वेदना की यह खबर अगर मैं पहुंचा सका हूं तो इससे अधिक और कुछ मुझे नहीं करना है। इस लाभ-हानि को खतियाकर देखने का भार समाज का है, साहित्यिक का नहीं। रमा के व्यर्थ जीवन की तरह यह रचना वर्तमान में व्यर्थ हो सकती है, किन्तु भविष्य की विचारशाला में निर्दोष के लिए इतनी बड़ी सजा का भोग एक दिन किसी तरह मंजूर होगा। यह बात मैं निश्चय के साथ जानता हूं। यह विश्वास यदि होता तो साहित्यसेवी की कलम उसी दिन वहीं संन्यास ले लेती।
(विष्णु प्रभाकर कीआवारा मसीहासे)