Monday 4 August 2008

Tumhare Charan

हिन्दी काव्य का सफ़र (दरअसल हिन्दी साहित्य, जैसा आज हम जानते हैं) शुरू से ही कुछ बंधनों के साथ आरंभ हुआ. कुछ सीमाएँ, कुछ वर्जनाएँ, कुछ कमज़ोरियाँ. १९वी शताब्दी के अंतिम वर्षों में भी यह भाषा और कथ्य के स्तर पर अपनी पहचान बनाने की कोशिश मे लगा था. भारतेंदु का साहित्य दोनो स्तरों पर इसका साक्षी है. हरिऔध भी खड़ी बोली की भाषा के विकास में अनवरत लगे रहे. 'ठेठ हिन्दी का ठाट', भाषा संबंधी उनकी प्रयोगवदिता का एक उदाहरण है.
इसी दौरान दो ऐसे विकास हुआ जिन्हौने हिन्दी का भविष्य तय करने में अहम भूमिका निभाई. पहली तो एक खास शैली और कथ्य में उर्दू एक भाषा के तौर पर अपनी पहचान बना चुकी थी. दूसरी, इसी दौरान बांग्ला साहित्य ने एक लंबी छलाँग लगाई.
बन्किम के बाद काव्य में रबींद्र ठाकुर और कथा में शरत ने बांग्ला साहित्य को वो ज़मीन दी जिसपर एक पनपती भाषा के लिए टिकना मुश्किल था.
हिन्दी के भाग्य से २०वी सदी के प्रारंभ में उसके पास ऐसी अद्भुत प्रतिभाएँ थी जो भाषा और कथ्य के स्तरों पर दिशा प्रदान कर सके. प्रसाद, पंत, निराला पद्य में तो प्रेमचंद, शुक्ल एवं द्विवेदी गद्य में.
भाषा के स्तर पर गद्य में आसानी थी क्योंकि उर्दू एक सीमित पद्य शैली के लिए विकसित की गये थी. कथ्य के स्तर पर भी एक सहूलियत थी की प्राचीन संस्कृत साहित्य एक रस थे तो आधुनिक बांग्ला गद्य भी प्रेम और स्थूल अनुभूतियों से आगे नही बढ़ा था. पद्य मे मुश्किलें थीं. भाषा के स्तर पर हरिऔध ने जो दिशा दी, उससे थोड़ी आसानी हुई किंतु कथ्य के स्तर पर निर्धारण टेढ़ी खीर थी. उर्दू ने प्रेम के मांसल पक्ष पर इतना और इतना अच्छा लिखा था तो प्रेम और भक्ति की सूक्ष्म भावना में रबींद्र ठाकुर ने ज़्यादा जगह नही छोड़ी. फिर, इन दोनो ही स्तर पर अपना संस्कृत पद्य इतना प्रबल है की नये की गुंजाइश नही बची.
भाषा की विशिस्टता को लेकर इतनी जागरूकता इसलिए ही कवित्रयि में मिलती है. कथ्य में भी उन्हौने भक्त कवियों के लीक से परे रूप से प्रारंभ किया और उसके रहस्यवाद को मुखरित होने दिया. महादेवीजी के पास आकर तो यह रहस्यवाद इतना सूक्ष्म हो गया की इसके उद्धार की कोई सूरत नही रही.
क्या आश्चर्य अनेक सप्तक भी फिर इसका परित्रान ना कर सके.
साम्यवाद उस समय सभी थके हारे और मोह भँगीत बुद्धिजीवियों के साथ-साथ ही हिन्दी काव्य की रक्षा में प्रकट हुआ किंतु इसके बाद की कथा में मेरा प्रायोजन नहीं है.

इतनी लंबी प्रस्तावना मैने यह बताने के लिए रखी है की हिन्दी में ढंग की प्रेम कविता के अभाव के ऐतिहासिक कारण हैं.
साथ ही यह बताने लिए भी की हिन्दी भाषा स्थूल किंतु कोमल भावाव्यक्ति में कोई विशेष बाधा देती हो ऐसा नही है.

धर्मवीर भारती



ये शरद के चाँद-से उजले धुले-से पाँव,
मेरी गोद में !
ये लहर पर नाचते ताजे कमल की छाँव,
मेरी गोद में !
दो बड़े मासूम बादल, देवताओं से लगाते दाँव,
मेरी गोद में !



रसमसाती धूप का ढलता पहर,
ये हवाएँ शाम की, झुक-झूमकर बरसा गयीं
रोशनी के फूल हरसिंगार-से,
प्यार घायल साँप-सा लेता लहर,
अर्चना की धूप-सी तुम गोद में लहरा गयीं
ज्यों झरे केसर तितलियों के परों की मार से,
सोनजूही की पँखुरियों से गुँथे, ये दो मदन के बान,
मेरी गोद में !
हो गये बेहोश दो नाजुक, मृदुल तूफ़ान,
मेरी गोद में !



ज्यों प्रणय की लोरियों की बाँह में,
झिलमिलाकर औ’ जलाकर तन, शमाएँ दो,
अब शलभ की गोद में आराम से सोयी हुईं
या फ़रिश्तों के परों की छाँह में
दुबकी हुई, सहमी हुई, हों पूर्णिमाएँ दो,
देवताओं के नयन के अश्रु से धोयी हुईं।
चुम्बनों की पाँखुरी के दो जवान गुलाब,
मेरी गोद में !
सात रंगों की महावर से रचे महताब,
मेरी गोद में !



ये बड़े सुकुमार, इनसे प्यार क्या ?
ये महज आराधना के वास्ते,
जिस तरह भटकी सुबह को रास्ते
हरदम बताये हैं रुपहरे शुक्र के नभ-फूल ने,
ये चरण मुझको न दें अपनी दिशाएँ भूलने !
ये खँडहरों में सिसकते, स्वर्ग के दो गान, मेरी गोद में !
रश्मि-पंखों पर अभी उतरे हुए वरदान, मेरी गोद में !

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