Sunday 17 April 2022

नारी चरित्र की पवित्रता और उसके सशर्त अधिकार

तुलसी को पढ़ना है तो उनके काव्य-बोध और भक्ति- भाव के लिए पढ़ें।न कि उनकी इतिहास या भूगोल के ज्ञान के लिए।इसी तरह, तुलसी- काव्य के बल पर उनके वैयक्तिक चरित्र पर टिप्पणी अनुचित है क्योंकि तुलसी का मूल्य-बोध उनके काल- समयानुसार ही था। हम अपने आज के मूल्यों को तुलसी पर आरोपित नहीं कर सकते।व्यक्ति कितना ही उदात्त-चित्त हो, मूल्य- बोध में अपने काल का अतिक्रमण नहीं कर सकता।गांधी की आलोचना (विशेषकर उनके कुछ सामाजिक विचारों के संदर्भ में) भी इसी भाँति व्यर्थ है।संस्कार और संस्कार-जन्य पूर्वग्रह हमारे मूल्यबोध की नींव हैं।यही कारण है कि अपने काल के मूल्यों से आगे निकल पाना असम्भव सा है। 

संस्कारों का अतिक्रमण कर पाना आज भी उतना ही कठिन है।आज, जब हम अपने काल के मूल्यों के प्रति यत्नपूर्वक सतर्क और सचेष्ठ हैं, तब भी संस्कार जनित कितने ही पूर्वग्रह, अनायास, हमारे चरित्र और कृत्य को कैसे प्रभावित करते हैं! प्रायः, अचेतन के स्तर पर ही।

एक मित्र ने यह ख़ूब प्यारा और संवेदनशील संदेश भेजा।क्या बोल हैं और अमिताभ बच्चन का पाठ।अद्भुत! किन्तु सच कहूँ तो  जब मैं इसके एक पंक्ति पर आया, ठिठक गया। कवि कहता है, “चरित्र यदि पवित्र है”! और मुझे लगा कि यह पंक्ति, पूरे कविता की धुरी है।शक्ति के इस आह्वान में नारी के चरित्र/ कृत्य की पवित्रता की शर्त का समावेश है! 

नारी का सम्पूर्ण अस्तित्व, समस्त सामाजिक अधिकार-प्रतिष्ठा सशर्त है। चरित्र की पवित्रता!

इस युग-काल में, जब हम शिक्षा और सँस्कृति के शिखर पर हैं, तब भी, जो सामान्य सामाजिक अधिकार-सम्मान व्यक्ति को सहज-सुलभ मान्य हैं , नारी के लिए वे सशर्त क्यों हों? 

फिर क्या उपलब्धि रही इस शिक्षा, इस साँस्कृतिक प्रगति की?  १९३० के कामायनी और आज के मूल्य-बोध में क्या भेद रहा; हम कहाँ पहुँचे इन १०० सालों में!

"नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग-पग-तल में

पीयूष श्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर- समतल में"

                                                   (कामायनी) 



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