स्वतंत्रता स्वयमसिद्ध साध्य मात्र नहीं है। यह एक मार्ग सा है जिसके लिये निरंतर आग्रही होना पड़ता है। एक ऐसी राह जो सजग पथिक के लिए विस्तृत होती जाती है। स्वतंत्रता एक परिभाषा नहीं है और किसी बंधन को सहज नहीं स्वीकारती है। तात्पर्य कि यह स्वयं अपने अर्थ और चौहद्दी के रूप और आकार को बदलती रहती है। एक विकासशील स्वतंत्रता, कल्पना के स्तर पर नदी के प्रवाह की तरह है: बंधन भी मानेगी तो विरोध के साथ, इस उद्यम के साथ कि उसे पार करना है।
इसलिए एक सफल राष्ट्र में प्रशासन का श्रेष्ठ समर्थन एक व्यवस्थित और सतत् समालोचना और प्रतिरोध ही है। यह व्यवस्थित आग्रह जितना मज़बूत और जन-समर्थित होगा, उतना अच्छा।
यही एक सफल और असफल राष्ट्र का भेद है।
क्या आश्चर्य, बिलकुल शुरू से ही, सजग बुद्धिजीवियों के एक समूह ने विरोध की राजनीति चुनी। लोहिया का समाजवाद एक स्तर पर तो बहुतेरे साहित्यिक दूसरे स्तर पर। साठ के दशक में रेणु मैला आँचल में सरकार की विफलता पर लिख रहे थे, सत्तर में श्रीलाल शुक्ल का राग दरबारी लें या प्रगतिवादी साहित्यिकों को। चाहे नागार्जुन की “कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास” हो या दुष्यंत की “भूख है तो सबर कर रोटी नहीं तो क्या हुआ”; चाहे आपातकाल में बाबा की “इन्दुजी, इन्दुजी क्या हुआ आपको” हो या दुष्यंत की “ जिसने नज़र उठाई वही शख़्स गुम हुआ, इस जिस्म के तिलिस्म की बंदिश तो देखिये”।
यह विरोध नब्बे के दशक में भी था और आज भी जब कैलाश गौतम कहते हैं,
“उहै अमीरी उहै गरीबी उहै जमाना अब्बौ हौ
कब्बौ गयल न जाई जड़ से रोग पुराना अब्बौ हौ
दूसर के कब्जा में आपन पानी दाना अब्बौ हौ.
जहां खजाना रहल हमेसा उहै खजाना अब्बौ हौ”
(http://kavitakosh.org/kk/गान्ही_जी_/_कैलाश_गौतम)
सारे शिकवा-शिकायतों के बावजूद आज यह स्वतंत्र, प्रगतिशील और सार्वभौम राष्ट्र यदि अथक रूढ़ वर्जनाओं, सीमाओं, दूरग्रहों की हदों को चुनौती दे पा रहा है, तो इसमें उन ज़िद्दी, प्रतिबद्ध व्यवस्था-विरोधियों की भूमिका को पहचानने की आवश्यकता है। शायद कल हम उनके साथ भी होंगे किंतु शुरुआत के लिए सद्यतन इतना यथेष्ट है!
इस अर्थ में गणतंत्र दिवस का महत्व है कि इसने हमें विरोध के लिए एक संवैधानिक ढाँचा दिया।इसके अभाव में स्वतंत्रता की रक्षा असम्भव होता।
(सीमा के उस पार से एक ऐसा ही विरोध-स्वर: निसार मैं तेरी गलियों पे ऐ सनम: फ़ैज़ अहमद फ़ैज़)
Nazm
Video
https://m.youtube.com/watch?v=c6U3u6GDz60
इसलिए एक सफल राष्ट्र में प्रशासन का श्रेष्ठ समर्थन एक व्यवस्थित और सतत् समालोचना और प्रतिरोध ही है। यह व्यवस्थित आग्रह जितना मज़बूत और जन-समर्थित होगा, उतना अच्छा।
यही एक सफल और असफल राष्ट्र का भेद है।
क्या आश्चर्य, बिलकुल शुरू से ही, सजग बुद्धिजीवियों के एक समूह ने विरोध की राजनीति चुनी। लोहिया का समाजवाद एक स्तर पर तो बहुतेरे साहित्यिक दूसरे स्तर पर। साठ के दशक में रेणु मैला आँचल में सरकार की विफलता पर लिख रहे थे, सत्तर में श्रीलाल शुक्ल का राग दरबारी लें या प्रगतिवादी साहित्यिकों को। चाहे नागार्जुन की “कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास” हो या दुष्यंत की “भूख है तो सबर कर रोटी नहीं तो क्या हुआ”; चाहे आपातकाल में बाबा की “इन्दुजी, इन्दुजी क्या हुआ आपको” हो या दुष्यंत की “ जिसने नज़र उठाई वही शख़्स गुम हुआ, इस जिस्म के तिलिस्म की बंदिश तो देखिये”।
यह विरोध नब्बे के दशक में भी था और आज भी जब कैलाश गौतम कहते हैं,
“उहै अमीरी उहै गरीबी उहै जमाना अब्बौ हौ
कब्बौ गयल न जाई जड़ से रोग पुराना अब्बौ हौ
दूसर के कब्जा में आपन पानी दाना अब्बौ हौ.
जहां खजाना रहल हमेसा उहै खजाना अब्बौ हौ”
(http://kavitakosh.org/kk/गान्ही_जी_/_कैलाश_गौतम)
सारे शिकवा-शिकायतों के बावजूद आज यह स्वतंत्र, प्रगतिशील और सार्वभौम राष्ट्र यदि अथक रूढ़ वर्जनाओं, सीमाओं, दूरग्रहों की हदों को चुनौती दे पा रहा है, तो इसमें उन ज़िद्दी, प्रतिबद्ध व्यवस्था-विरोधियों की भूमिका को पहचानने की आवश्यकता है। शायद कल हम उनके साथ भी होंगे किंतु शुरुआत के लिए सद्यतन इतना यथेष्ट है!
इस अर्थ में गणतंत्र दिवस का महत्व है कि इसने हमें विरोध के लिए एक संवैधानिक ढाँचा दिया।इसके अभाव में स्वतंत्रता की रक्षा असम्भव होता।
(सीमा के उस पार से एक ऐसा ही विरोध-स्वर: निसार मैं तेरी गलियों पे ऐ सनम: फ़ैज़ अहमद फ़ैज़)
Nazm
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