कल का दिन कुछ अजीब था। गुज़रे हुए बचपन की यादों से जैसे एक पन्ना खुल गया हो। ऐसी कितनी बातें जो अब नहीं होती! मसलन, गाने सुनते हुए पढ़ाई करना, बेवजह! न कोई परीक्षा पास है न ही कोई इंटर्व्यू। जैसे नियमित पढ़ाई किया करते थे, वैसे ही और वो भी टेक्स्ट बुक, तीन घंटे! और इस उम्र में रतजगा कर के कोई हिंदी उपन्यास ख़त्म करने की हिम्मत, मैंने तो नहीं सोचा था कल रात तक भी।
दिन की शुरुआत हुई फ़ेस्बुक पर अरुण दा की एक पोस्ट से: लॉंग्फ़ेलो की एक छोटी कविता और यह टिप्पणी की उनकी भाषा कितनी समसामयिक थी। और मुझे लगा कि उनका कथ्य भी उतना ही प्रासंगिक था, जो मैंने लिखा भी। और मैं सोचता रहा तक़रीबन सारे दिन, शरतचन्द्र को। पिछले कुछ दिनों से शरत याद आते रहे थे, भिन्न कारणों से। और अरुण दा की उस पोस्ट से संदर्भ-सूत्र मिलते चले गए।
[साहित्य का मेरा अध्ययन सीमित ही रहा है। फिर भी भिन्न भाषा की श्रेष्ठ रचनाओं में से कुछ तो पढ़ पाया, हिंदी या अंग्रेज़ी अनुवाद। अंग्रेज़ी में और कम, सिवा भारतीय मूल के कुछ लेखकों के। हिंदी भी कम ही हो पाया, मुख्यतः मेरी ज़िद की वजह से कि अब बहुत हुआ। फिर भी एक बात तो कह सकता हूँ कि ख़ासकर भारतीय युवाओं का साहित्य-अध्ययन बिन शरतचन्द्र के अधूरा ही रहेगा। यदि आपने उस उम्र में ‘ बड़ी दीदी’, ‘बिंदूर छेले’ या ‘दत्ता’ न पढ़ा तो उम्र का एक पड़ाव बिना उन मीठी संवेदनाओं के ही बिताया जो फिर आपके पास नहीं लौटेंगे।प्रेम की जो अभिव्यक्ति शरत के यहाँ है, शायद कहीं और नहीं है।हिन्दीभाषी सौभाग्यशाली हैं कि बंगला-हिंदी अनुवाद में शायद कुछ नहीं खोता है। यदि आप बंगला जानते हो तो क्या कहने! (लगे हाथों रवि ठाकुर की ‘शेषेर कविता’ भी पढ़ लो) शरत पढ़ ली और फिर कुछ नहीं भी पढ़ा तो अफ़सोस की कोई वजह नहीं।]
किंतु क्या अब शरत को पढ़ना उतना ही आसान होगा जितना उस उम्र मे था? इस उत्साह के अतिरेक में कहीं उन यत्न से सहेजी स्मृतियों को भी न खो दूँ, यही भय था।मन निश्चित करने में रात हो गयी किंतु यह सोच कि आज का यह अद्भुत दिन उपयुक्त है, फिर मौक़ा मिले न मिले। एक बजे सुबह ‘दत्ता’ डाउनलोड किया और समाप्त होने में सुबह के सवा पाँच बज गये। पचीसेक वर्षों के बाद फिर से ‘दत्ता’ पढ़ना, पुरानी स्नेह-स्मृतियों के यत्न-पूर्वक बंद दरवाज़ों को खोलने जैसा था। आप उन स्निग्ध यादों से भींग जाते हैं तो भी सोचते हैं, यह अच्छा नहीं हुआ!
देर दिन में उठा और TV खोला तो पाया श्रीदेवी नहीं रही। जिस समय मैं पुरानी यादों की कोठरी खोल रहा था, दूर देश में हमारे उन दिनों की एक प्रिय याद ने नाता तोड़ लिया।जब दूर अतीत में उन तेज़ी से भागते दिनों में हम साहित्य, सौंदर्य और समाज की अपनी समझ विकसित करने में लगे थे, श्रीदेवी निश्चित ही सौंदर्य-बोध में अपना दावा स्थापित कर रही थीं।
रात के उस निर्जन-नीरव प्रहर, मेरा ‘दत्ता’ पाठ, क्या मेरी मौन, अनजान श्रधांजलि नहीं थी उस सौंदर्य-प्रतिमान को जो सहज ही हम सबके युवा-निर्दोष हृदय के एक हिस्से की दावी बन गयी थी।
ईश्वर सदा आपको अपने स्नेह-आँचल की छाँव में रखें, श्रीदेवी।
चांदनी छत पे चल रही होगी
अब अकेली टहल रही होगी
फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा
बर्फ़-सी वो पिघल रही होगी
कल का सपना बहुत सुहाना था
ये उदासी न कल रही होगी
सोचता हूँ कि बंद कमरे में
एक शमअ-सी जल रही होगी
तेरे गहनों सी खनखनाती थी
बाजरे की फ़सल रही होगी
जिन हवाओं ने तुझ को दुलराया
उन में मेरी ग़ज़ल रही होगी
(दुष्यंत)
दिन की शुरुआत हुई फ़ेस्बुक पर अरुण दा की एक पोस्ट से: लॉंग्फ़ेलो की एक छोटी कविता और यह टिप्पणी की उनकी भाषा कितनी समसामयिक थी। और मुझे लगा कि उनका कथ्य भी उतना ही प्रासंगिक था, जो मैंने लिखा भी। और मैं सोचता रहा तक़रीबन सारे दिन, शरतचन्द्र को। पिछले कुछ दिनों से शरत याद आते रहे थे, भिन्न कारणों से। और अरुण दा की उस पोस्ट से संदर्भ-सूत्र मिलते चले गए।
[साहित्य का मेरा अध्ययन सीमित ही रहा है। फिर भी भिन्न भाषा की श्रेष्ठ रचनाओं में से कुछ तो पढ़ पाया, हिंदी या अंग्रेज़ी अनुवाद। अंग्रेज़ी में और कम, सिवा भारतीय मूल के कुछ लेखकों के। हिंदी भी कम ही हो पाया, मुख्यतः मेरी ज़िद की वजह से कि अब बहुत हुआ। फिर भी एक बात तो कह सकता हूँ कि ख़ासकर भारतीय युवाओं का साहित्य-अध्ययन बिन शरतचन्द्र के अधूरा ही रहेगा। यदि आपने उस उम्र में ‘ बड़ी दीदी’, ‘बिंदूर छेले’ या ‘दत्ता’ न पढ़ा तो उम्र का एक पड़ाव बिना उन मीठी संवेदनाओं के ही बिताया जो फिर आपके पास नहीं लौटेंगे।प्रेम की जो अभिव्यक्ति शरत के यहाँ है, शायद कहीं और नहीं है।हिन्दीभाषी सौभाग्यशाली हैं कि बंगला-हिंदी अनुवाद में शायद कुछ नहीं खोता है। यदि आप बंगला जानते हो तो क्या कहने! (लगे हाथों रवि ठाकुर की ‘शेषेर कविता’ भी पढ़ लो) शरत पढ़ ली और फिर कुछ नहीं भी पढ़ा तो अफ़सोस की कोई वजह नहीं।]
किंतु क्या अब शरत को पढ़ना उतना ही आसान होगा जितना उस उम्र मे था? इस उत्साह के अतिरेक में कहीं उन यत्न से सहेजी स्मृतियों को भी न खो दूँ, यही भय था।मन निश्चित करने में रात हो गयी किंतु यह सोच कि आज का यह अद्भुत दिन उपयुक्त है, फिर मौक़ा मिले न मिले। एक बजे सुबह ‘दत्ता’ डाउनलोड किया और समाप्त होने में सुबह के सवा पाँच बज गये। पचीसेक वर्षों के बाद फिर से ‘दत्ता’ पढ़ना, पुरानी स्नेह-स्मृतियों के यत्न-पूर्वक बंद दरवाज़ों को खोलने जैसा था। आप उन स्निग्ध यादों से भींग जाते हैं तो भी सोचते हैं, यह अच्छा नहीं हुआ!
देर दिन में उठा और TV खोला तो पाया श्रीदेवी नहीं रही। जिस समय मैं पुरानी यादों की कोठरी खोल रहा था, दूर देश में हमारे उन दिनों की एक प्रिय याद ने नाता तोड़ लिया।जब दूर अतीत में उन तेज़ी से भागते दिनों में हम साहित्य, सौंदर्य और समाज की अपनी समझ विकसित करने में लगे थे, श्रीदेवी निश्चित ही सौंदर्य-बोध में अपना दावा स्थापित कर रही थीं।
रात के उस निर्जन-नीरव प्रहर, मेरा ‘दत्ता’ पाठ, क्या मेरी मौन, अनजान श्रधांजलि नहीं थी उस सौंदर्य-प्रतिमान को जो सहज ही हम सबके युवा-निर्दोष हृदय के एक हिस्से की दावी बन गयी थी।
ईश्वर सदा आपको अपने स्नेह-आँचल की छाँव में रखें, श्रीदेवी।
चांदनी छत पे चल रही होगी
अब अकेली टहल रही होगी
फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा
बर्फ़-सी वो पिघल रही होगी
कल का सपना बहुत सुहाना था
ये उदासी न कल रही होगी
सोचता हूँ कि बंद कमरे में
एक शमअ-सी जल रही होगी
तेरे गहनों सी खनखनाती थी
बाजरे की फ़सल रही होगी
जिन हवाओं ने तुझ को दुलराया
उन में मेरी ग़ज़ल रही होगी
(दुष्यंत)
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