रग-रग में जिसके नश्तरे-ग़म के शिगाफ हों
वो क्या बताए, दर्द कहाँ है, कहाँ नहीं ।
दर्द व्याधि का होता है और व्यथा का। जब दोनों मिल दर्द सिरजते हैं, वह अद्भुत सम ताल में संगीत सा झंकृत कर देता है; शरीर को निश्चय, पर उतना ही आत्मा को भी। इस वेदना में कोई विराम, कोई व्यतिक्रम नहीं!
यह वेदना की टीस, यह तने वीणा का झंकृत तार, यह स्वयं में खोया मद्धम सम ताल, यह मीरा को कृष्ण- विरह का भुजंगम-दंश! इसका क्या निदान?
यह शरीर की विवशता पर आत्मा का समर्पण-गान है। यह सूर का अभिमानहीन प्रार्थना है, “हे गोविन्द राखो शरण, अब तो जीवन हारे”।
एक अनाहूत ज्ञान, उसकी पुकार, जो आत्महन्ता भय जनता है वह जब शरीर के दुख पर चढ़ उन्माद रचता है, यह वही दर्द है। इसका क्या इलाज? कबीर कहते हैं,
“विरह भुवंगम तन डँसा, मंत्र न लागे कोय
राम स्नेही ना जिये, जिये तो बौरा होय।”
सौवों बार पढ़ा होगा, फ़ैज़ की यह नज़्म, हर बार तनिक ज़्यादा ही विस्मय से, किन्तु पढ़ने का और समझने का भेद भी तो जानता हूँ। अबकी बार तो पढ़ना पड़ा ही नहीं, सप्ताह भर तो वह हाल हुआ, जिसे कबीर बताते हैं, “ पीछे-पीछे हरि चले, कहत कबीर, कबीर”!
“दर्द इतना था कि उस रात दिल-ए-वहशी ने
हर रग-ए-जाँ से उलझना चाहा
हर बुने-मुँ से टपकना चाहा
और कहीं दूर तेरे सहन में गोया
पत्ता-पत्ता मेरे अफ़सुरदा लहू में धुलकर
हुस्न-ए-महताब से आजुर्दा नज़र आने लगा
मेरे वीराने-तन में गोया
सारे दुखते हुए रेशों की तनाबें खुलकर
सिलसिलावार पता देने लगीं
रूखसत-ए-क़ाफ़िला-ए-शौक़ की तैयारी का”
पिछले ग्यारह दिन, अस्पताल के निर्जन कक्ष की रही यह उपलब्धि! जब एक थकान शरीर का अतिक्रमण कर आत्मा पर मानो पसर गया था! ऑंख भी खोलने देने को तैयार नहीं होता और दो शब्द बोलना जैसे आत्मा को टीसता! कैसी यंत्रणा! इसी के मध्य, फ़ैज़ साहब की इस नज़्म के मायने मिले!
“और जब याद की बुझती हुई शम्माओं में नज़र आया कहीं
एक पल आख़िरी लम्हा तेरी दिलदारी का
दर्द इतना था कि उस से भी गुज़रना चाहा
हमने चाहा भी मगर दिल ना ठहरना चाहा”
(हॉर्ट अटैक: फ़ैज़ अहमद फ़ैज़)
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