Saturday, 23 March 2019

रविवार की ख़ाली दोपहरी

किसी युग में समाज का चरित्र निर्माण एक व्यक्ति की ही भाँति होता है। जिन परिस्थितियों में उसका प्रादुर्भाव होता है, वह उसके जन्म तुल्य है तो उन्ही परिस्थितियों से सतत संघर्ष में विकासमान उसका मूल्यबोध एक वैयक्तिक नैतिकता का विस्तार ही तो है। समाज के चरित्र की एक विशेषता उसका उदात्त होना है जो उसे एक समूह से अलग करता है। यह व्यक्तियों के समूह का निर्वयक्तिकरन है जो समाज को संप्रभु बनाता है।
क्या एक व्यक्ति तय करेगा कि उसका या किसी अन्य व्यक्ति का आचरण क्या होगा? या व्यक्तियों का एक समूह? इतिहास प्रमाण है की समाज, आवश्यक होने पर, नैतिकता, न्याय और कई बार धर्म के भी मान्य प्रतिमानों को अमान्य कर या बदल सकता है। 

हाल की ही बात लगती है। १९६६ में आयी थी फ़िल्म, ‘ममता’। देवयानी ने प्रेम निभाया, ममता निभायी और जो कुछ भी तत्कालीन समाज ने निषिद्ध किया, सबकी मर्यादा रखी। सबका स्नेह मिला, आदर मिला। कोई खोट नहीं, कोई दोष नहीं, न्याय ने सर झुका सत्कार किया। 
किंतु अंत में यही तय रहा की देवयानी का मरना श्रेयस्कर हो। कोई खोट, कोई दोष हो या ना हो, एक परित्यकता और गानेवाली के लिए समाज का न्याय कठोर है: काशी प्रवास या मृत्यु। शरत को नहीं पढ़ा आपने! अब, १९६६ के प्रगतिशील व्यक्ति समूहों के मध्य देवयानी को काशी भेजने में अड़चनें रही होंगी किंतु समाज का मूल्य बोध वैयक्तिक नैतिकता तो मानता नहीं! 
आश्चर्य इस फ़िल्म के अंत से नहीं, अपितु इस सत्य-बोध से है कि समाज के मूल्यों के प्रति कितनी सजगता हमारे फ़िल्मों ने दिखाए हैं और इसके रूढ़ रूप की निरंतरता के लिए कितने सचेस्ट व प्रयत्नशील रहें हैं हमारे फ़िल्म।

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