परत दर परत, कुहरे सा
छा गया है उदासी मेरे परित:
कोई हौले से कह गया कानों में
बस ख़त्म ही हुआ चाहती है
पूंजी जीवन की...
एक अनाहुत ज्ञान के दंश से
शून्य हुआ जाता हूँ
कि, भेदता इस उदास शून्यत्त्व को
एक क्षीण आह्वान!
कदाचित् तुमने पुकारा है!
काँप जाती है ज्यों
बुझते दिए की तेज होती लौ-
किसी असंभाव्य के घटने की आशा में-
सिहर-सिहर उठता है मन
(स्नेह बंधन में मृत्यु की सार्थकता पर?)
प्रिय देखो-
तुम्हारे स्नेहपूर्ण अस्तित्व और
मेरी क्षमाशील स्वीकृति में
आती है कृतग्य मृत्यु!
(३ अक्टूबर, १९९४)
छा गया है उदासी मेरे परित:
कोई हौले से कह गया कानों में
बस ख़त्म ही हुआ चाहती है
पूंजी जीवन की...
एक अनाहुत ज्ञान के दंश से
शून्य हुआ जाता हूँ
कि, भेदता इस उदास शून्यत्त्व को
एक क्षीण आह्वान!
कदाचित् तुमने पुकारा है!
काँप जाती है ज्यों
बुझते दिए की तेज होती लौ-
किसी असंभाव्य के घटने की आशा में-
सिहर-सिहर उठता है मन
(स्नेह बंधन में मृत्यु की सार्थकता पर?)
प्रिय देखो-
तुम्हारे स्नेहपूर्ण अस्तित्व और
मेरी क्षमाशील स्वीकृति में
आती है कृतग्य मृत्यु!
(३ अक्टूबर, १९९४)
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