भारती ने एक अवसर पाया था, प्रेम की दैहिक अनुभूति के आख्यान का, उसकी समस्त लौकिकता के संग. एक स्वर्गीय भाव के इस संसार में उत्सव की कथा कहने का एक अवसर.
यदि हिन्दी में कोई एक व्यक्ति यह कर सकता था तो वह निश्चय ही भारती थे. कनुप्रिया!
आज की रात
हर दिशा में अभिसार के संकेत क्यों हैं?
हवा के हर झोंके का स्पर्श
सारे तन को झनझना क्यों जाता है?
और यह क्यों लगता है
कि यदि और कोई नहीं तो
यह दिगन्त-व्यापी अँधेरा ही
मेरे शिथिल अधखुले गुलाब-तन को
पी जाने के लिए तत्पर है
और ऐसा क्यों भान होने लगा है
कि मेरे ये पाँव, माथा, पलकें, होंठ
मेरे अंग-अंग - जैसे मेरे नहीं हैं-
मेरे वश में नहीं हैं-बेबस
एक-एक घूँट की तरह
अँधियारे में उतरते जा रहे हैं
खोते जा रहे हैं
मिटते जा रहे हैं
और भय,
आदिम भय, तर्कहीन, कारणहीन भय जो
मुझे तुमसे दूर ले गया था, बहुत दूर-
क्या इसी लिए कि मुझे
दुगुने आवेग से तुम्हारे पास लौटा लावे
और क्या यह भय की ही काँपती उँगलियाँ हैं
जो मेरे एक-एक बन्धन को शिथिल
करती जा रही हैं
और मैं कुछ कह नहीं पाती!
मेरे अधखुले होठ काँपने लगे हैं
और कण्ठ सूख रहा है
और पलकें आधी मुँद गयी हैं
और सारे जिस्म में जैसे प्राण नहीं हैं
मैंने कस कर तुम्हें जकड़ लिया है
और जकड़ती जा रही हूँ
और निकट, और निकट
कि तुम्हारी साँसें मुझमें प्रविष्ट हो जायें
तुम्हारे प्राण मुझमें प्रतिष्ठित हो जायें
तुम्हारा रक्त मेरी मृतपाय शिराओं में प्रवाहित होकर
फिर से जीवन संचरित कर सके-
और यह मेरा कसाव निर्मम है
और अन्धा, और उन्माद भरा; और मेरी बाँहें
नागवधू की गुंजलक की भाँति
कसती जा रही हैं
और तुम्हारे कन्धों पर, बाँहों पर, होठों पर
नागवधू की शुभ्र दन्त-पंक्तियों के नीले-नीले चिह्न
उभर आये हैं
और तुम व्याकुल हो उठे हो
धूप में कसे
अथाह समुद्र की उत्ताल, विक्षुब्ध
हहराती लहरों के निर्मम थपेड़ों से-
छोटे-से प्रवाल-द्वीप की तरह
बेचैन-
(कनुप्रिया – केलिसखी)
कनुप्रिया का प्रारंभ एवं विकास सहज हैं तथा कथा का प्रवाह आवेग-मई. भारती का इस काव्य के उत्तरार्ध में विषयों का आरोपण न केवल कृत्रिम, बलात और अविवेकी है अपितु मेरी दृष्टि में उनके वैयक्तिक आग्रहों और महत्वाकांक्षाओं का उनके कवि-धर्म पर भारी पड़ना दिखलाता है. भारती का 'कनुप्रिया' में अनर्थक विषायारोपण ने इस अत्यंत सुंदर एवं साहित्य की दृष्टि से सशक्त कविता को समाप्त कर दिया. मेरा सविनय आग्रह है की 'कनुप्रिया' कवि की श्रेष्ठतम कृति के लायक थी. आह! कवि का आग्रह. यह सौभाग्य शायद कनु ने 'अँधा युग' के लिए तय किया था. राधा का भाग्य-दोष क्या उसके साथ ही गया!
यदि कभी हिन्दी काव्य पर अपूर्ण, एकाकी या एकांगी का लांक्षण आए तो निश्चय ही भारती अपने दायित्व से मुकर न सकेंगे.
तब तक इस अद्भुत एवं अविचारणीय-रूप से नष्ट किए प्रेम-गीत के शोक मे मेरे सहभागी रहें.
सुनो मेरे प्यार!
प्रगाढ़ केलिक्षणों में अपनी अंतरंग
सखी को तुमने बाँहों में गूँथा
पर उसे इतिहास में गूँथने से हिचक क्यों गए प्रभु?
बिना मेरे कोई भी अर्थ कैसे निकल पाता
तुम्हारे इतिहास का
शब्द, शब्द, शब्द…
राधा के बिना
सब
रक्त के प्यासे
अर्थहीन शब्द!
सुनो मेरे प्यार!
तुम्हें मेरी ज़रूरत थी न, लो मैं सब छोड़कर आ गई हूँ
ताकि कोई यह न कहे
कि तुम्हारी अंतरंग केलिसखी
केवल तुम्हारे साँवरे तन के नशीले संगीत की
लय बन तक रह गई……
मैं आ गई हूँ प्रिय!
मेरी वेणी में अग्निपुष्प गूँथने वाली
तुम्हारी उँगलियाँ
अब इतिहास में अर्थ क्यों नहीं गूँथती?
तुमने मुझे पुकारा था न!
मैं पगडण्डी के कठिनतम मोड़ पर
तुम्हारी प्रतीक्षा में
अडिग खड़ी हूँ, कनु मेरे!
(कनुप्रिया – समापन)
2 comments:
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