Sunday 15 May 2022

आवारगी

क्या दिन थे वे भी, घर से निकले तो रास्तों की फ़िक्र मंज़िल का कुछ ठौर! दोस्तों के साथ जिधर मुड़ गए, वही उस दिन का सच था! फ़ैज़ ने हमारे लिए ही तो लिखा

सर--कू---आशनायां*/ हमें दिन से रात करना/ कभी इस से बात करना/कभी उस से बात करना


हमारी आवारगी इस दर्जे की थी कि कितने परिचितों, जिनसे रोज़ की मुलाक़ात थी, उन्हें भी ठीक पता नहीं होता कि जिस घर से मैं सुबह-शाम निकलता हूँ वह मेरा ही घर था या फिर मेरे साथ दिखने वाले मेरे किसी और मित्र का! यह तब, जब पूर्णिया शहर की बनिस्बत गाँव ही ज़्यादा था।


आवारगी के सिवा हमारा समय बीतता था हिन्दी साहित्य में। गद्य हो या पद्य, शरत हों या प्रेमचंद, निराला, कबीर या बच्चन! कुछ भी अपढ़्य, अग्राह्य नहीं था। हम उस छोटे शहर की किताब की दुकानों को खंगाल मारते थे।


गाँव छूटा, मित्र छूटे, आवारगी गयी, किताबें भी।


किताबों की और भी कहानी है। कितनी बार कोशिश भी की। लेखक-पाठक सम्बंध जटिल है। लेखक के पास कहने के लिए है किंतु सबका अपना सच है, जिनका दायरा सीमित है। यह सृजन की सीमा है। मैंने किसी सर्जक को इस अर्थ में अपने सत्य, संदर्भ का अतिक्रमण करते नहीं पाया। किंतु पाठक पर कोई बंधन नहीं है। उसका बोझ है, यदि मानें, भिन्न सत्यों, संदर्भों को स्वीकारना। इसलिए एक सच्चा पाठक हमेशा अपने प्रिय लेखक से आगे बढ़ पाता है।

यह एक सत्य है जिसे कभी मैं स्वीकार नहीं सका। शरत, प्रेमचंद, कबीर और निराला से बढ़ पाने का हौसला नहीं हुआ। यह एक पाठक के तौर पर हार जाना है, पर क्या करूँ। फिर फ़ैज़ की शरण में हूँ:

तुझको देखा तो सेर--चश्म^ हुए
तुझ को चाहा तो और चाह की 


*अनजान गलियों में

^ आँखे तृप्त

Sunday 17 April 2022

नारी चरित्र की पवित्रता और उसके सशर्त अधिकार

तुलसी को पढ़ना है तो उनके काव्य-बोध और भक्ति- भाव के लिए पढ़ें।न कि उनकी इतिहास या भूगोल के ज्ञान के लिए।इसी तरह, तुलसी- काव्य के बल पर उनके वैयक्तिक चरित्र पर टिप्पणी अनुचित है क्योंकि तुलसी का मूल्य-बोध उनके काल- समयानुसार ही था। हम अपने आज के मूल्यों को तुलसी पर आरोपित नहीं कर सकते।व्यक्ति कितना ही उदात्त-चित्त हो, मूल्य- बोध में अपने काल का अतिक्रमण नहीं कर सकता।गांधी की आलोचना (विशेषकर उनके कुछ सामाजिक विचारों के संदर्भ में) भी इसी भाँति व्यर्थ है।संस्कार और संस्कार-जन्य पूर्वग्रह हमारे मूल्यबोध की नींव हैं।यही कारण है कि अपने काल के मूल्यों से आगे निकल पाना असम्भव सा है। 

संस्कारों का अतिक्रमण कर पाना आज भी उतना ही कठिन है।आज, जब हम अपने काल के मूल्यों के प्रति यत्नपूर्वक सतर्क और सचेष्ठ हैं, तब भी संस्कार जनित कितने ही पूर्वग्रह, अनायास, हमारे चरित्र और कृत्य को कैसे प्रभावित करते हैं! प्रायः, अचेतन के स्तर पर ही।

एक मित्र ने यह ख़ूब प्यारा और संवेदनशील संदेश भेजा।क्या बोल हैं और अमिताभ बच्चन का पाठ।अद्भुत! किन्तु सच कहूँ तो  जब मैं इसके एक पंक्ति पर आया, ठिठक गया। कवि कहता है, “चरित्र यदि पवित्र है”! और मुझे लगा कि यह पंक्ति, पूरे कविता की धुरी है।शक्ति के इस आह्वान में नारी के चरित्र/ कृत्य की पवित्रता की शर्त का समावेश है! 

नारी का सम्पूर्ण अस्तित्व, समस्त सामाजिक अधिकार-प्रतिष्ठा सशर्त है। चरित्र की पवित्रता!

इस युग-काल में, जब हम शिक्षा और सँस्कृति के शिखर पर हैं, तब भी, जो सामान्य सामाजिक अधिकार-सम्मान व्यक्ति को सहज-सुलभ मान्य हैं , नारी के लिए वे सशर्त क्यों हों? 

फिर क्या उपलब्धि रही इस शिक्षा, इस साँस्कृतिक प्रगति की?  १९३० के कामायनी और आज के मूल्य-बोध में क्या भेद रहा; हम कहाँ पहुँचे इन १०० सालों में!

"नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग-पग-तल में

पीयूष श्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर- समतल में"

                                                   (कामायनी) 



Friday 15 April 2022

Watching Gulzar’s Aandhi (after a gap of may be 25 years?)

A great piece of art captures our mind. It haunts us, tortures us. And if it’s a tragedy, it completely crushes our soul. That’s how it stays with us forever, like a lost love buried deep within. 

That’s what I realised while reading Premchand’s Godan, despite Premchand softening the blow by creating a very weak parallel narrative in the novel. Naipaul does not offer any such kindness in his A House For Mr Biswas. Our heart just keeps sinking as the story unfolds. Dharamveer Bharti in his love story, Gunahon Ka Devta, can totally destroy a young soul. The list goes on, be it Tagore in Shesher Kavita or Sharat Chandra in, well, most of his stories. As we approach the end of these stories of pure human tragedies, we desperately wish the story to be over, to be rid of a haunted world that the story is. And yet, like a death wish, we seek this traumatic experience again and again.

A young person’s interest in literature, for this reason, always saddens me. An impressionable mind, a delicate soul, may not actually ever recover from this experience. That is a curse a young soul must endure.

This brings me to Gulzar, the incorrigible romantic that he is. Give him any topic and he creates a love story. Such persons should not be allowed to produce tragedies! A love tragedy makes me miserable simply because it depicts love as inadequate, incapable. Have always hated him for that. And love him for all the happy endings he has given us.

Watching Aandhi again, after god knows how many years, was so pleasant. A narrative so powerful, so well made, so cheesy and so weak, all at the same time. When I first watched it all those years ago, it seemed so intense, so overwhelming. But today I could enjoy it and, guess, liked it with all its frailties. And the songs! Difficult to find more powerful lyrics in Hindi cinema than, “tere bina jindagi se shikwa to nahi”.

And that’s why we like going back to these books/ movies at a more matured age.

Wednesday 4 November 2020

दर्द का महासंगीत और फ़ैज़

 रग-रग में जिसके नश्तरे-ग़म के शिगाफ हों

वो क्या बताए, दर्द कहाँ है, कहाँ नहीं


दर्द व्याधि का होता है और व्यथा का। जब दोनों मिल दर्द सिरजते हैं, वह अद्भुत सम ताल में संगीत सा झंकृत कर देता है; शरीर को निश्चय, पर उतना ही आत्मा को भी। इस वेदना में कोई विराम, कोई व्यतिक्रम नहीं

यह वेदना की टीस, यह तने वीणा का झंकृत तार, यह स्वयं में खोया मद्धम सम ताल, यह मीरा को कृष्ण- विरह का भुजंगम-दंश! इसका क्या निदान

यह शरीर की विवशता पर आत्मा का समर्पण-गान है। यह सूर का अभिमानहीन प्रार्थना है, “हे गोविन्द राखो शरण, अब तो जीवन हारे

एक अनाहूत ज्ञान, उसकी पुकार, जो आत्महन्ता भय जनता है वह जब शरीर के दुख पर चढ़ उन्माद रचता है, यह वही दर्द है। इसका क्या इलाज? कबीर कहते हैं,


 “विरह भुवंगम तन डँसा, मंत्र लागे कोय

राम स्नेही ना जिये, जिये तो बौरा होय।



सौवों बार पढ़ा होगा, फ़ैज़ की यह नज़्म, हर बार तनिक ज़्यादा ही विस्मय से, किन्तु पढ़ने का और समझने का भेद भी तो जानता हूँ। अबकी बार तो पढ़ना पड़ा ही नहीं, सप्ताह भर तो वह हाल हुआ, जिसे कबीर बताते हैं, “ पीछे-पीछे हरि चले, कहत कबीर, कबीर”!


दर्द इतना था कि उस रात दिल--वहशी ने 

हर रग--जाँ से उलझना चाहा

हर बुने-मुँ से टपकना चाहा

और कहीं दूर तेरे सहन में गोया

पत्ता-पत्ता मेरे अफ़सुरदा लहू में धुलकर 

हुस्न--महताब से आजुर्दा नज़र आने लगा

मेरे वीराने-तन में गोया

सारे दुखते हुए रेशों की तनाबें खुलकर

सिलसिलावार पता देने लगीं

रूखसत--क़ाफ़िला--शौक़ की तैयारी का


पिछले ग्यारह दिन, अस्पताल के निर्जन कक्ष की रही यह उपलब्धि! जब एक थकान शरीर का अतिक्रमण कर आत्मा पर मानो पसर गया था! ऑंख भी खोलने देने को तैयार नहीं होता और दो शब्द बोलना जैसे आत्मा को टीसता! कैसी यंत्रणा! इसी के मध्य, फ़ैज़ साहब की इस नज़्म के मायने मिले


और जब याद की बुझती हुई शम्माओं में नज़र आया कहीं

एक पल आख़िरी लम्हा तेरी दिलदारी का

दर्द इतना था कि उस से भी गुज़रना चाहा

हमने चाहा भी मगर दिल ना ठहरना चाहा


(हॉर्ट अटैक: फ़ैज़ अहमद फ़ैज़)