क्या दिन थे वे भी, घर से निकले तो न रास्तों की फ़िक्र न मंज़िल का कुछ ठौर! दोस्तों के साथ जिधर मुड़ गए, वही उस दिन का सच था! फ़ैज़ ने हमारे लिए ही तो लिखा,
सर-ए-कू-ए-न-आशनायां*/ हमें दिन से रात करना/ कभी इस से बात करना/कभी उस से बात करना
हमारी आवारगी इस दर्जे की थी कि कितने परिचितों, जिनसे रोज़ की मुलाक़ात थी, उन्हें भी ठीक पता नहीं होता कि जिस घर से मैं सुबह-शाम निकलता हूँ वह मेरा ही घर था या फिर मेरे साथ दिखने वाले मेरे किसी और मित्र का! यह तब, जब पूर्णिया शहर की बनिस्बत गाँव ही ज़्यादा था।
आवारगी के सिवा हमारा समय बीतता था हिन्दी साहित्य में। गद्य हो या पद्य, शरत हों या प्रेमचंद, निराला, कबीर या बच्चन! कुछ भी अपढ़्य, अग्राह्य नहीं था। हम उस छोटे शहर की किताब की दुकानों को खंगाल मारते थे।
गाँव छूटा, मित्र छूटे, आवारगी गयी, किताबें भी।
किताबों की और भी कहानी है। कितनी बार कोशिश भी की। लेखक-पाठक सम्बंध जटिल है। लेखक के पास कहने के लिए है किंतु सबका अपना सच है, जिनका दायरा सीमित है। यह सृजन की सीमा है। मैंने किसी सर्जक को इस अर्थ में अपने सत्य, संदर्भ का अतिक्रमण करते नहीं पाया। किंतु पाठक पर कोई बंधन नहीं है। उसका बोझ है, यदि मानें, भिन्न सत्यों, संदर्भों को स्वीकारना। इसलिए एक सच्चा पाठक हमेशा अपने प्रिय लेखक से आगे बढ़ पाता है।
यह एक सत्य है जिसे कभी मैं स्वीकार नहीं सका। शरत, प्रेमचंद, कबीर और निराला से बढ़ पाने का हौसला नहीं हुआ। यह एक पाठक के तौर पर हार जाना है, पर क्या करूँ। फिर फ़ैज़ की शरण में हूँ:
तुझको देखा तो सेर-ए-चश्म^ हुए
तुझ को चाहा तो और चाह न की
*अनजान गलियों में
^ आँखे तृप्त