Wednesday, 10 November 2010

प्रेम-२

प्रेम-२

जब देखता हूँ
दंतकथाओं में वर्णित
परियों सा चेहरा तुम्हारा
एक सम्मोहन में बंध
सो जाती हैं सारी भावनाएं,
सभी विचार, तर्क, सम्पूर्ण दर्शन
अधखुली आँखों से ग्रहण करता हूँ तुम्हे
युगों से संचित पिपासा भरे ह्रदय में

तुम्हारे सौन्दर्य-गर्वित मुख के प्रेम में कैद
यह ह्रदय, अपनी निस्सहायता पर
पृथकता के भय से
फिर, अनायास काँप उठता है

एक अत्यंत कारुणिक क्रोध, कुंठित हो
करता है पैशाचिक कामना-
एक इंद्रजाल-
मेरे हाँथ बदल गए हैं भारी पंजों में
झपट्टा मारते तुम्हारे निष्कलंक मुख पर
मेरे पाशविक नख-दन्त
टुकड़े करते तुम्हारे बदन को
और, मरुभूमि सा मेरा ह्रदय
तृप्त करता अपनी प्यास- तुमसे !

चाहता हूँ हँसना वीभत्स हंसी, कि
भंग होता है इंद्रजाल !

अपनी कुंठा से पराजित
असमर्थता पर हताश
उस क्षण, मैं, संपूर्ण ह्रदय से
तुम्हरी मृत्यु की कामना करता हूँ

(६ फ़रवरी, १९९१)