Wednesday, 20 October 2010

प्रेम -१

प्रेम -१ 


मुझे खूब याद है
दो बदहवास उड़े चेहरे.
मैं उसे घर लाया था
(जान बूझकर)
तुमसे परिचय (!) कराने-
तुम दोनों कैसे
'तुम.. ', 'तुम...' कह जड़ हो गए थे !
याद हैं वे भी किस्से
उसकी किसी (!)  प्रेमिका के विषय में.
जुडी बातें और भी बहुत सी
खूब याद है मुझे.
और जब भी तुम्हें छूता हूँ
मेरी  प्रिय,
सब कुछ दुहराने लगता है.

तुम्हारे होंठ,
तुम्हारे चेहरे,
तुम्हारी खूबसूरत गर्दन से

आती एक परिचित सी बास
पाशविक उत्तेजना भर देती है
मेरे अंगों में
और क्रोध भी
जो कुटिल मुस्कान में बदल जाता है
जब मेरे स्पर्श से
काँपता है तुम्हारा अनावृत सौंदर्य
(घृणा से? )

मेरे सहचर्य में
विवश पड़ता देख तुम्हारा परी-मुख
फिर से उमड़ने लगता है
प्यार मेरे अन्दर
(कितनी सुन्दर लगती है एक असहाय लड़की!)

मेरी प्यारी, पराजिता
क्या तुम कभी जान पाओगी, कि,
छीन लेने कि सोच उपजती है प्रेम से ?
और घृणा सह पाने कि शक्ति भी !!

(१५ मार्च, १९९४)