भय एक दर्द सा
कौंधता है सीने में
फैल जाता है, पूरे शरीर पर.
धरा रह जाता है
अभ्यास सारा, निरपेक्ष रहने का.
सारे दिन की हँसी निगल जाती है रात.
यह अंधेरे का आतंक है
या असमर्थता की अनुभूति?
ऐसा क्यों होता है कि
रात के अकेलेपन में
न खोए हुए प्रेम को रो पाता हूँ
न मिले हुए स्नेह को स्वीकार!
दिन के उजाले के सत्य को
नकार देती है रात.
बारह बजने वाले हैं प्रिय
फिर आनी है सुबह
(दुहराने, यातना की यह दिनचर्या)
हताश, चेष्टा करता हूँ सोने की.
(१२ सितम्बर, १९९७)
कौंधता है सीने में
फैल जाता है, पूरे शरीर पर.
धरा रह जाता है
अभ्यास सारा, निरपेक्ष रहने का.
सारे दिन की हँसी निगल जाती है रात.
यह अंधेरे का आतंक है
या असमर्थता की अनुभूति?
ऐसा क्यों होता है कि
रात के अकेलेपन में
न खोए हुए प्रेम को रो पाता हूँ
न मिले हुए स्नेह को स्वीकार!
दिन के उजाले के सत्य को
नकार देती है रात.
बारह बजने वाले हैं प्रिय
फिर आनी है सुबह
(दुहराने, यातना की यह दिनचर्या)
हताश, चेष्टा करता हूँ सोने की.
(१२ सितम्बर, १९९७)